हमारा जीवन तो अपने-अपने कर्मों के अनुसार अलग-अलग अवधि का होता है लेकिन 4 दिन की जिंदगी ही क्यों कहा जाता है
गोरखपुर। 21 सितम्बर। कथा। युगपुरुष ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज की 52वीं एवं राष्ट्रसंत ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी महाराज की 7वीं पुण्यतिथि के अवसर पर चल रहे श्रीराम एवं श्रीकृष्ण कथा का तात्विक विवेचन विषय पर आज पांचवें दिन कथा व्यास अनंत श्रीविभूषित जगतगुरु रामानुजाचार्य स्वामी वासुदेवाचार्य जी महाराज विद्याभास्कर ने व्यास पीठ से कहा कि हमारा जीवन तो अपने-अपने कर्मों के अनुसार अलग-अलग अवधि का होता है लेकिन 4 दिन की जिंदगी ही क्यों कहा जाता है, तो उन्होंने बताया कि सबके जीवन में एक दिन सुख का, एक दिन दुख का, एक दिन थोड़ा सुख का, एक दिन थोड़ा दुख का होता है इस प्रकार से कुल चार दिन ही होते हैं । कहते हुए चार दिन की जिंनिगिया भजला हरि भजन गाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। गर्भ में जीव के विकास व गर्भाधान की प्रक्रिया बताते हुए उन्होंने कहा कि गर्भाधान के पूर्व पुत्रमन्य होम करने का विधान है, इसके द्वारा आप जैसी चाहे वैसी संतान पा सकते हैं। हमारे आयुर्वेद में गर्भाधान के समय ही गर्भधारण हुआ या नहीं उसका लक्षण बताया गया है । यही नहीं 10 दिवसो में गर्भ में पुत्र है या पुत्री इसका लक्षण भी हमारे आयुर्वेद शास्त्र में बताया गया है। कथा व्यास ने कहा कि भागवत महापुराण भारतीय आयुर्विज्ञान व भारतीय रसायन विज्ञान है इसमें हमारी जीवनचर्या की पूरी विधि वर्णित है। गर्भ में बालक के विकास की पूरी प्रक्रिया को कपिल मुनि अपनी मां देवहूति को सुनाते हैं । गर्भावस्था में सहवास का निषेध है जो हमारे शास्त्रों में वर्णित है और यह परम वैज्ञानिक है। भारतीय संस्कृति में जो भी विधि निषेध है वह सभी वैज्ञानिक है। भगवतकथा का तात्विक विवेचन यही है कि जीवन के विकास की जो पूरी प्रक्रिया है उसको समझें और उससे होने वाले दुख को समझकर मुक्ति के लिए प्रयास करें। गर्भावस्था में शिशु जब सिर को नीचे करके रहता है तो सुषुम्ना का द्वार खुल जाता है और उसको अपने 100 जन्मों का स्मरण होने लगता है और वह संकल्प करता है कि हम इस जन्म में मुक्त होने का प्रयास करेंगे। और संकल्प करता है कि हम भगवान की भक्ति में ही जीवन बिताएंगे किंतु बाहर निकलने पर वह पुनः माया के वशीभूत हो जाता है । वह गर्भ में रहते हुए भगवान से वादा करता है लेकिन अपना वादा भूल जाता है । यह कथा उसी वादे को याद दिलाने का माध्यम है। हमारे भोजपुरी संत-महात्मा लोग शास्त्रों के तत्व को भजनों के माध्यम से हमारे सामने रखें है। नाथ परंपरा में योगियों का उल्लेख करते हुए यामुन मुनि की चर्चा की और बताया दक्षिण भारत में कुरुकैकावलप्पन नामक योगी हुए थे जो अपने पौत्र यामुन मुनि को योग के रहस्य का वर्णन किया उसी परंपरा को गोरक्षनाथ जी ने भी आगे बढ़ाया है। योग बल से सभी संकल्पों की सिद्ध होती है। योग पद्धतियों में गुरु कृपा से भी योग की सिद्धियां प्राप्त होती हैं। कथा व्यास ने पूतना की कथा सुनाई और पूतना का अर्थ बताया कि किस प्रकार से भगवान श्रीकृष्ण ने पूतना का स्तनपान करके उसका वध किया। उसका विस्तृत व्याख्या भी किया। यह बताया कि भगवान 6 दिन के ही हुए थे तभी कंस ने पूतना को भेजा था । उसके बाद शकटासुर, बकासुर जैसे कई दैत्यों ने श्री कृष्ण को मारने के बहाने अपनी मुक्ति कराई। मां यशोदा अपने घनश्याम को देखकर क्या अनुभूति करती है इसको एक भजन आओ बसो नंदलाल मेरे नैनन में को गाकर सुनाया जो जिससे भक्तजन हाथ उठा कर झूम उठे।
योग की परंपरा के ईश्वर योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ही है क्योंकि सबसे पहले योग को विस्तृत रूप में प्रवर्तन उन्होंने ही किया।
कथा व्यास ने कहा कि भगवान बाल रूप में जब फल बेचने वाली की आवाज सुनकर अपने दोनों हाथों में अन्न लेकर बाहर निकले तो उस फल बेचने वाली के पास पहुंचते-पहुंचते उनकी मुट्ठी के अन्न जमीन पर गिर जाते हैं। इस क्रिया को देखकर फलवाली भाव विभोर हो जाती है और वह उनकी हथेली में फल रखती है, वह जितना फल रखती है उनकी हथेली में उतना ही स्थान खाली रहता है इस प्रकार से उसने अपना सारा फल उनकी हथेली में रख दिया । भगवान प्रसन्न होकर उसकी टोकरी रत्नों से भर देते हैं । भगवान तो भाव के भूखे हैं उन्होंने देखा कि एक फल बेचने वाली एक साधारण से बच्चे को जिसके हाथ में उसके फल का मूल्य देने को नहीं है उसे अपना सारा फल दे देती है तब उसके भाव से प्रेरित होकर तुरंत भगवान उसके इस वात्सल्य को पहचान कर उसे उसका फल इस प्रकार देते हैं कि उसे अब कभी फल बेचने की आवश्यकता नहीं होगी। भगवान दुनिया के सबसे बड़े खरीदने वाले है। उन्होंने जब जिसका सामान खरीद लिया उसे फिर किसी और को कुछ बेचना नहीं पड़ा।कथा व्यास ने बाल स्वभाव का वर्णन करते हुए कहा कि बच्चों की यदि उपेक्षा हुई तो वह बहुत जल्दी समझ जाते हैं और जल्दी नाराज भी हो जाते हैं। यही क्रिया भगवान के प्रसंग में भी आती है। यशोदा जब अपनी गोद में भगवान को ली थी और उन को दूध पिलाना शुरू की थी तभी चूल्हे पर रखा दूध उफान लिया। यशोदा माता उनको जमीन पर बिठाकर चूल्हे के पास जाती है, तो भगवान को यह अच्छा नहीं लगा और वह पत्थर से दूध के मटके को फोड़ देते हैं। यह मटका यशोदा माता को उनकी सास के द्वारा मुंह दिखाई में मिला था, इसलिए माँ यशोदा बहुत क्रोधित होती हैं और छड़ी लेकर उनको दौड़ा लेती है। जिस को पकड़ने के लिए ऋषि-मुनियों, योगियों ने ध्यान, व समाधि से पाना चाहा, उसको मैया यशोदा छड़ी लेकर पकड़ना चाह रही हैं । भगवान तो केवल प्रेम से पकड़े जा सकते, किसी अन्य साधन से नहीं। मैया ने जब पानी फेंककर प्रेम से बुलाया तो भगवान स्वयं पकड़ में आ गए क्योंकि भगवान तो प्रेम के भूखे हैं।
कथा का समापन आरती और महाप्रसाद वितरण के साथ हुआ। मंच का संचालन डॉ0 श्रीभगवान सिंह ने किया। इस अवसर पर योगी कमलनाथ जी, महन्त रविन्द्रदास, महन्त पंचानन पुरी, ब्लॉक प्रमुख भरोहिया संजय सिंह, ब्लॉक प्रमुख जंगल कौड़िया बृजेश यादव, महापौर सीताराम जायसवाल, अजय कुमार सिंह, महेश पोद्दार, कनकहरि अग्रवाल, आदि प्रमुख लोगो सहित बड़ी संख्या में भक्त एवं श्रद्धालु उपस्थित रहे।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें